बाल वनिता महिला आश्रम

जब भी हम इस तरह का सवाल करते है कि, ईश्वर का निवास कहा है , तो उसके अधिक तर यही उत्तर होते है कि ,ईश्वर तो कण- कण में विराजमान है या कहते है , ईश्वर तो सर्वव्यापी है, गुरु ही ईश्वर है, हमारी आत्मा ही परमात्मा है, या कहेंगे परमात्मा घट घट मे बसा है, आदि आदि , फिर भी हमारी अंतरात्मा के अंदर फिर से वही प्रश्न उठता है कि,आखिर ईश्वर का निवास है कहा ? क्योंकी, अभी भी इन सारे जबाबो से मन संतृस्ट नहीं हो रहा है।

  • इस प्रश्न के उत्तर की गुत्थी उलझे हुए सुत के धागे की तरह है, हमारे ऋषि मुनियों ने हमें किस उद्देश्य से कहा था,और वह बात एक दूसरे से होते होते ऐसी उलझ गई कि, अर्थ का ही अनर्थ हो गया ,जैसे कोई बात किसी के कान में सुनाओ और वही व्यक्ति जब वहीं बात दूसरे को सुनाता है तो वह जरूर अपने भी दो शब्द उसमे मिलाता है जब वही बात आप दसवें व्यक्ति से सुनोगे तो मूल बात का अर्थ का ही अनर्थ हो जाता है ,ठीक ईश्वर के निवास स्थान के बारेमे भी ऐसा ही हुआ है, हम भी एक दूसरे के बातो की पुष्टि देकर इस बात पर आ गए कि, ईश्वर कण कण में है। और इस बात को हमारे ऋषि मुनियों ने इसलिए कहा गया कि, उन्होने अपने समाधि अवस्था में यह जान लिया था कि, आने वाले भविष्य में अर्थात कलियुग में पापाचार ,व्यभिचार,भ्रष्टाचार बढ़ेगा इस लिए उन्होंने कह दिया कि तुम्हारे हर कर्म की गतिविधि परमात्मा देखता है , वह हर जगह विद्यमान है पहले पहले मनुष्य तो पापाचार करने से डरने लगा ,जब उसे लगा कि, कुछ नहीं होता या कोई देखता नहीं तो उसकी पाप करने की हिम्मत बढ़ गई। जैसे एक मां भी अपने छोटे बच्चे से कहती है, बेटा बाहर निकलना नहीं ,नहीं तो बाहर कुत्ता तुझे कांट लेगा इसी डर से बच्चा बाहर निकलता नहीं था क्योंकि मा को बच्चे की सुरक्षा की चिंता थी लेकिन एक दिन बच्चे ने बाहर देखा दूसरा एक बच्चा कुत्ते से खेल रहा है और वह तो उसे कांट नहीं रहा यह देख यह बच्चा भी बाहर निकल पड़ा और वह भी कुत्ते से खेलने लगा ठीक यही बांत भी हमारे साथ हुई की ईश्वर तो कण कण में है,घट घट में है यह जान लिया लेकिन मान नहीं लिया । हम और भी दुष्कर्म करते आए।
  • ईश्वर को हम सत चित आनंद स्वरूप कहते है क्योंकि, वह सत्य है , चैतन्य बीज रूप है, ईश्वर के अलावा बाकी सब नश्वर है हर चीज परिवर्तनशील है , ईश्वर ही एक ऐसी चेतन सत्ता है जो अपरिवर्तन शील है, बीज रूप है " बिजं मां सर्वभूतानां विद्धी पार्थ सनातनम । गीता अध्याय ७ श्लोक १०
  • हम मनुष्य आत्माएं भी देहरूपी वस्त्र बदलते है ,सृष्टि भी अपना रूप बदलते रहती है । सारे मनुष्य सृष्टि वृक्ष का बीज एक परमात्मा ही है।
  • क्या ईश्वर कण - कण में निवास करता है ? या कहे " सर्वव्यापी " है ?
  • इसे हम एक भावनात्मक सत्य के रूप में स्वीकार कर सकते है , लेकिन सैद्धांतिक सत्य के रूप में नहीं , हम भावना वश कहते है कि, ईश्वर तो सदा मेरे साथ रहते है,इसका अर्थ यह नहीं कि वह सदा मेरी उंगली पकड़ कर चल रहे है ,अगर मान भी लें तो क्या ईश्वर सबकी उंगली एक साथ एक ही समय पर कैसे पकड़ सकता है, परमात्मा तो एक है अनेक नहीं हम आत्माएं एक शक्ति ( सोल) है और ईश्वर सुप्रीम सोल ( परम आत्मा ) परमात्मा है , "एकम ब्रम्ह द्वितीय नास्ती नेह नास्ती नेह नास्ती किंचन " - ब्रम्ह सूत्र अर्थात ईश्वर एक है ,दुसरा कोई नही है , बाकी सारे देवताये तथा मनुष्य है।
  • जब ईश्वर एक है तो उसका निवास स्थान भी एक होगा अगर वह कण कण मे रहता है तो उसका निवास स्थान अनेक हो गए । अर्थात वह मनुष्य,गुरु, पेड़ पौधे, जानवरो में ,पत्थरों में, सब जगह हो गए ,अब हम भावना वश उनकी महिमा कर रहे है या ग्लानि यह हमें समझना होगा।
  • सवाल यह उठता है कि, अगर ईश्वर मनुष्य के अंदर निवास करते है तो एक व्यक्ति कोई खून कर रहा है,या पापाचार कर रहा है तो उसे अन्दर बैठे ईश्वर नीच कर्म करने से रोकते क्यों नहीं, अगर वह हमारे अंदर ही है तो हम उसे पुकारते क्यों है? हे ईश्वर आ आओ और हमारी मदत करो, आखिर हम मंदिर में उस पत्थर की मूर्ति में भी ईश्वर को क्यों तलाशते है , वास्तव में दोनों बाते अलग - अलग है। अगर ईश्वर का निवास हमारे अंदर हो तो उसे अलग से अवतार लेने कि जरूरत नहीं ,वह अंदर है ही, फिर अवतार कैसे? हम मनुष्य आत्माए पाप कर्म कर पतित भी बनती है तो पुण्य कर्म कर पावन भी बनती है, ईश्वर कभी भी पतित नहीं बनते वह तो एवर प्युअर है इसलिए कहते भी है , हे पतित पावन आओ, क्योंकि, ईश्वर ही एक ऐसी शक्ति है जो इस धरा पर आकर पतितो को पावन बनाती है।
  • गुरु ही ईश्वर है या गुरु में ईश्वर है ,
  • हम गाते है " गुरु ब्रम्ह: गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वर " यह भी हम भावना वश कहते है, जिस गुरु को हमने ईश्वर माना वह अगर किसी कारणवश जेल में चला जाए तो उस शिष्य की क्या अवस्था होगी , जिसने गुरु को ही ईश्वर मान लिया था। गुरु ईश्वर नहीं है या न पतितो को पावन बनाने वाला ,ना किसी आत्मा को मुक्ति देने वाला क्योंकि, गुरु भी इस संसार चक्र में फंसा है, जो इस जन्म मृत्यु के चक्र से बाहर है,जो अजन्मा हैं,अकालमूर्त है वहीं हमे मोक्ष दिला सकता है। गुरु उस अध्यात्ममार्ग की तरफ ले जाने वाला गाइड मात्र है ।मुक्तिदाता नहीं, वास्तव में हम मनुष्य आत्मा और परमात्मा में महान अंतर है परमात्मा सर्व गुणों के सागर है और हम आत्माएं उनकी सरिताए ,वह सर्व शक्ति शाली है और हम उससे बल प्राप्त करते है ,उसे हम कहते भी है,तुम मातपिता हम बालक तेरे , तुम्हरी कृपा से सुख घनेरे , कृपा करने वाले और कृपा लेने वाले अलग अलग है, ईश्वर को पिता माना तो हम उसके बालक हुए न की ,हम ही पिता और हम ही बालक । कोई भी मनुष्य खुद का बाप नहीं बन सकता लेकिन बाप जैसा बन सकता है।
  • जैसे सूर्य एक जगह है लेकिन उसका प्रकाश सारे पृथ्वी पर फैला है ठीक उसी प्रकार ईश्वर की शक्ति सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है । ईश्वर ट्रांसमीटर जैसा है और हम रिसीवर है जैसे आकाश में घूमता सैटेलाइट सारी जगह अपनी फ्रीक्वेंसी ट्रांसमिट करता है और हम रेडियो द्वारा हम मन चाहे स्टेशन को सुनने के लिए ट्यूनिंग करते है उसी प्रकार हम आत्माएं योग द्वार अंतर्मुखी होकर परमात्म शक्ति को पाने के लिए ट्यूनिंग करते है, ईश्वर सर्व व्यापक नहीं है उसकी शक्तियां सर्वव्यापी है, अगर ईश्वर सर्वव्यापी होता तो गीता में यह नहीं कहते कि,
  • यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भव- ति भारत अभ्युत्थान- मधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्- ॥४-७॥परित्राणाय- साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्- ।धर्मसंस्था- पनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
  • अर्थात जब जब धर्म की अति ग्लानि होती है तब मै धरा पर अवतरित होता हूं । जब कहा गया कि, मै धरा पर अवतरित होता हूं अर्थात वह धरा पर निवास नहीं करता। ना घट घट में है , ईश्वर की याद ,प्यार घट घट में है।
  • क्या ईश्वर स्वर्ग में निवास करते है।
  • स्वर्ग की परिभाषा है, जहा सुख ही सुख है लेकिन हम ईश्वर की संतान यहां दुखी रहे और ईश्वर जिसे हम पिता कहते है, वह सुख में अर्थात स्वर्ग में रहेगा? वास्तव में ईश्वर सुख और दुख से न्यारा है, अभोगता है ,उसका सब पर निस्वार्थ प्रेम है, इसलिए हम कहते है, " तू प्यार का सागर और हम एक बूंद के प्यासे है " अर्थात बूंद के प्यासी आत्माएं परमात्मा कैसे हो सकती है,या कहो ,आत्मा सो परमात्मा कहना कहा तक उचित है।
  • आखिर कहा है ईश्वर का निवास
  • ईश्वर को हम शांति का सागर कहते है तो जरूर वह किसी दूर शांति धाम में रहता होगा। परमात्मा का निवास शांतिधाम ही है जिसे हम ब्रह्माण्ड,हिरण्यगर्भ,परमधाम,मुक्तिधाम कहते है वहीं परमात्मा का निवास है इसलिए हम कहते है पार ब्रम्ह में रहने वाला परमब्रह्म ,जो सूर्य , चांद,सितारे से भी दूर एक अलग ब्रह्माण्ड में रहते है, जिसका वर्णन गीता के श्लोक में भी है। " न ततभास यते सुर्यो ,न शशांको न पावक : । यदत्वा न निर्वांतंते , ततधाम परम मम ।।६।। अध्याय १५ पुरुषोत्तम योग। अर्थात मेरा धाम सूरज, चांद सितारों से भी दूर है जिसे सूर्य, चांद,तारे ,प्रकाशित नहीं करते ,वहीं परमधाम ही मेरा निवास स्थान है।
  • ईश्वर को कौन जान सकता है। या पहचान सकता है।
  • जिसने सबसे पहले स्वयं को जाना है, जिसको अनेक जन्म और मृत्यु के बाद परमात्मा का वास्तविक ज्ञान होता है, ईश्वर ही सारी जीव सृष्टि का परम कारण है यह जान कर वह ईश्वर को शरण जाता है ऐसी दुर्लभ आत्मा ही ईश्वर को जानती है ।
  • बहूनाम्, जन्मनाम्, अन्ते, ज्ञानवान्, माम्, प्रपद्यते,
    वासुदेवः, सर्वम्, इति, सः, महात्मा,सुदुर्लभः।।भगवद गीता अध्याय ७ श्लोक १९ ।।
  • ईश्वर को कौन नहीं जान सकता।
  • श्रीमद् भगवद्गीता में अध्याय ७ के २५ वे श्लोक में लिखा है कि,
  • नाहं प्रकाशः, सर्वस्य, योगमायासमावृतः।
    मूढः, अयम्, न, अभिजानाति, लोकः, माम्, अजम्, अव्ययम्।।25।।
  • मूढ़ और अज्ञानी लोगो को मै प्रकट नहीं होता हूं , मै उनसे अपने अंतरंग शक्ति द्वारा अप्रकट रहता हूं, क्योंकि मै अजन्मा ,अविनाशी हूं यह वे नहीं जानते।

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