श्रीमद्देवीभागवत ( पाँचवा स्कन्ध ) By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब〰️〰️🌼〰️🌼〰️🌼〰️〰️अध्याय 3 ( भाग 1, 2 )॥श्रीभगवत्यै नमः ॥दूत का लौटना और महिषासुर का देवताओं पर आक्रमण करने के लिये दैत्यों को प्रोत्साहन देना...〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️व्यासजी कहते हैं- महाराज! उस अवसरपर दूत की बात सुनकर इन्द्र की क्रोधाग्नि भभक उठी। फिर सँभलकर मुसकराते हुए उन्होंने अपना वक्तव्य दूत के प्रति व्यक्त करना आरम्भ किया। उन्होंने दूत से कहा–'अरे प्रचण्ड मूर्ख! क्या मैं तुझे नहीं जानता, जो तू अभिमान में चूर होकर यों अनाप-शनाप बक रहा है? तेरे स्वामी को यह अभिमान का रोग हो गया है, अतः मैं उसकी चिकित्सा अवश्य करूँगा। फिर ऐसी व्यवस्था की जायगी कि उसकी जड़ ही कट जाय। दूत! तू जा और मैं जो कुछ कहूँ, जाकर अपने स्वामी से कह दे। सदाचारी पुरुष दूतों पर कभी हाथ नहीं उठाते। अतः मैं तुझे छोड़ देता हूँ। उससे कहना- अरे भैंस के बच्चे! यदि तुझे युद्ध करने की इच्छा हो तो अभी सामने आ जा। अरे घोड़ों के दुश्मन! तेरा बल मुझे ज्ञात है। तेरी जड़ आकृति है। घास खाकर तू रहता है । तेरे सींगों का मैं सुदृढ़ धनुष बनाऊँगा। तेरे सींगों में कुछ बल अवश्य है। मैं जानता हूँ, इसी कारण से तुझे अभिमान हो गया है। मैं तेरे उन दोनों सींगों को तोड़कर तेरा बल नष्ट कर दूँगा। नीच महिष! मेरे द्वारा तेरे वे सींग काट लिये जायँगे और तेरा वह सारा बल छीन लिया जायगा, जिसके कारण तू पूर्ण अभिमानी बन बैठा है। सींग से मारने में ही तू कुशल है, न कि मोर्चे पर हथियार चलाने में।'व्यासजी कहते हैं- इस प्रकार इन्द्र के कहने पर वह दूत तुरंत वहाँ से चल दिया। वह मदाभिमानी महिषासुर के पास गया और प्रणाम करके उससे कहने लगा।दूतने कहा- राजन्! देवराज इन्द्र पूर्ण स्वतन्त्र है। उसके पास देवताओं की विशाल सेना है। अपने को वह महान् बलवान् समझता है। आपको तो वह कुछ भी नहीं गिनता। उस मूर्ख की कही हुई बातें मैं किस प्रकार बदलकर आपसे कहूँ; क्योंकि सेवक का कर्तव्य होता कि वह स्वामी के सामने प्रिय सत्य कहे। महाराज! कल्याणकामी दूत को चाहिये कि स्वामी के मुख पर सत्य और प्रिय बोले। परंतु मैं यदि केवल प्रिय ही बोलता हूँ तो वह असत्य होने से आपका कार्य सिद्ध होने में बाधा पड़ेगी और कल्याण कामी दूत को कभी कठोर वचन नहीं कहना चाहिये। अतः मैं वैसी बात कह नहीं सकता। प्रभो! ठीक ही है, शत्रु के मुख से तो विषतुल्य वचन निकलते ही हैं; पर वैसी बातें सेवक के मुख से कैसे निकल सकती हैं? राजन्! इस समय इन्द्र ने जिस प्रकार के घृणित वचन कहे हैं, वैसे वचन मेरी जीभ से कभी नहीं निकल सकते।अध्याय 3 ( भाग 2 )॥श्रीभगवत्यै नमः ॥महिषासुर का देवताओं पर आक्रमण करने के लिये दैत्यों को प्रोत्साहन देना...〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️व्यासजी कहते हैं- दूतकी बात में रहस्य छिपा हुआ था। उसे सुनकर महिषासुर का सर्वांग अत्यन्त क्रोध से तमतमा उठा। उसकी आँखें लाल हो गयीं। वह दैत्यों को बुलाकर उनसे कहने लगा – 'महाभाग दैत्यो! वह देवराज युद्ध करना चाहता है। तुमलोग भली-भाँति बल प्रयोग करके उस नीच शत्रु को परास्त कर दो। मेरे सामने दूसरा कौन शूरवीर कहला सकता है ? इन्द्र-जैसे करोड़ों वीर हों, तब भी कोई परवा नहीं, फिर इस अकेले इन्द्र से मुझे क्या डर है ? आज मैं उसे किसी प्रकार भी जीवित नहीं छोड़गा। जो शान्त रहते हैं, उन्हीं के प्रति वह शूरवीर कहलाता है। क्षीणकाय तपस्वी लोग ही उसे अधिक बलवान् मानते हैं। अप्सराएँ उसकी सहायिका हैं। उन्हीं का बल पाकर वह नीच सदा तपस्या में विघ्न उपस्थित करता रहता है। अवसर पाकर प्रहार कर देना उसका स्वभाव बन गया है। वह बड़ा ही विश्वासघाती है। यह वही छली इन्द्र है, जिसने नमुचि को मार डाला था। पहले तो नमुचि के साथ विवाद छिड़ जाने पर भयभीत होकर संधि करने में राजी हो गया। उसने तरह-तरह की प्रतिज्ञाएँ कर लीं। बाद में कपट करके उसे मार डाला। जालसाज विष्णु तो कपट-शास्त्र का पारंगत विद्वान् ही है। जब इच्छा होती है, नाना प्रकार के रूप धारण कर लेता है। बल भी है और दम्भ करने की सारी कलाएँ भी उसे ज्ञात हैं। दानवो! जिसने सूअर का रूप धारण करके हिरण्याक्ष को तथा नृसिंह का वेष बनाकर हिरण्यकशिपु को मार डाला, उस विष्णु की भी मैं अधीनता नहीं स्वीकार कर सकता। मुझे तो विश्वास ही नहीं होता कि देवताओं में भी कहीं कोई है, जो मेरे सामने ठहर सके। विष्णु अथवा महान् बलशाली इन्द्र मेरा क्या कर सकेंगे ? मैं समरांगण में खड़ा हो जाऊँगा तब शंकर भी मेरा सामना करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे। इन्द्र को हराकर स्वर्ग छीन लूँगा। वरुण, यमराज, कुबेर, अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य सभी मुझसे परास्त हो जायँगे। अब हम सब दानव ही यज्ञ में भाग पायेंगे। हमें सोम-रस पीने का अधिकार प्राप्त हो जायगा। देवताओं के समाज को कुचलकर मैं दानवों के साथ सुखपूर्वक विचरूँगा । दानवो! मुझे वर मिल चुका है। अतएव देवताओं से मैं बिलकुल नहीं डरता । पुरुषमात्र मुझे मारने में असमर्थ हैं, फिर स्त्री बेचारी क्या कर सकेगी ? शीघ्रगामी दूतो ! तुम्हारा परम कर्तव्य है, पाताल एवं पर्वत आदि विभिन्न स्थानों से प्रधान-प्रधान दानवों को बुला लाओ और उन्हें मेरी सेना के अध्यक्ष बना दो। दानवो! सम्पूर्ण देवताओं को जीतने के लिये अकेला मैं ही पर्याप्त हूँ; फिर भी मेरा गौरव बढ़ जाय - एतदर्थ इस देवासुर संग्राम में निमन्त्रण देकर आप सब लोगों को सम्मिलित करता हूँ। निश्चय ही मैं सींगों और खुरों से देवताओं के प्राण हर लूँगा। वरदान के प्रभाव से मुझे देवताओं का रत्तीभर भी भय नहीं है । देवताओं, दानवों और मानवों से अवध्य होने का वर मुझे प्राप्त है। अतएव आज आपलोग स्वर्गलोक पर विजय प्राप्त करने के लिये तैयार हो जायँ। दैत्यो! स्वर्ग पर अधिकार प्राप्त करके मैं नन्दनवन में विहार करूँगा। मेरे इस उद्योग से तुम्हें भी पारिजात के फूल सूँघने को मिलेंगे। देवांगनाएँ तुम्हारी सेवा करेंगी। कामधेनु गौ का दूध पीने को मिलेगा। अमृत पीकर तुमलोग आनन्द का अनुभव करोगे । दिव्य गन्धर्व नाच और गाकर तुम्हारे चित्त को आह्लादित करेंगे । उर्वशी, मेनका, रम्भा, घृताची, तिलोत्तमा, प्रमद्वरा, महासेना, मिश्रकेशी, मदोत्कटा और विप्रचित्ति प्रभृति अप्सराएँ नाचने एवं गाने में परम प्रवीण हैं। वे अनेक प्रकार की मदिराओं का सेवन करके तुम सब लोगों के चित्त को अत्यन्त प्रसन्न करेंगी; अतः देवताओं के साथ संग्राम करने के लिये स्वर्गलोक में चलना सबको सम्मत हो तो आज ही सभी तैयार हो जायँ। पहले मांगलिक कृत्य कर लेने चाहिये। सबकी सुरक्षा के लिये अपने परम गुरु मुनिवर शुक्राचार्यजी को बुलाकर भलीभाँति उनका स्वागत करें और उन्हें यज्ञ में नियुक्त कर दें।बाल वनिता महिला आश्रमव्यासजी कहते हैं–राजन्! महिषासुर की बुद्धि सदा पापकर्म में रत रहती थी। दैत्यों को उपर्युक्त आदेश देकर वह तुरंत अपने महल में चला गया। उस समय उसके मुखपर प्रसन्नता के चिह्न झलक रहे थे।क्रमश...शेष अगले अंक मेंजय माता जी की〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
श्रीमद्देवीभागवत ( पाँचवा स्कन्ध )
By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब
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अध्याय 3 ( भाग 1, 2 )
॥श्रीभगवत्यै नमः ॥
दूत का लौटना और महिषासुर का देवताओं पर आक्रमण करने के लिये दैत्यों को प्रोत्साहन देना...
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व्यासजी कहते हैं- महाराज! उस अवसरपर दूत की बात सुनकर इन्द्र की क्रोधाग्नि भभक उठी। फिर सँभलकर मुसकराते हुए उन्होंने अपना वक्तव्य दूत के प्रति व्यक्त करना आरम्भ किया। उन्होंने दूत से कहा–'अरे प्रचण्ड मूर्ख! क्या मैं तुझे नहीं जानता, जो तू अभिमान में चूर होकर यों अनाप-शनाप बक रहा है? तेरे स्वामी को यह अभिमान का रोग हो गया है, अतः मैं उसकी चिकित्सा अवश्य करूँगा। फिर ऐसी व्यवस्था की जायगी कि उसकी जड़ ही कट जाय। दूत! तू जा और मैं जो कुछ कहूँ, जाकर अपने स्वामी से कह दे। सदाचारी पुरुष दूतों पर कभी हाथ नहीं उठाते। अतः मैं तुझे छोड़ देता हूँ। उससे कहना- अरे भैंस के बच्चे! यदि तुझे युद्ध करने की इच्छा हो तो अभी सामने आ जा। अरे घोड़ों के दुश्मन! तेरा बल मुझे ज्ञात है। तेरी जड़ आकृति है। घास खाकर तू रहता है । तेरे सींगों का मैं सुदृढ़ धनुष बनाऊँगा। तेरे सींगों में कुछ बल अवश्य है। मैं जानता हूँ, इसी कारण से तुझे अभिमान हो गया है। मैं तेरे उन दोनों सींगों को तोड़कर तेरा बल नष्ट कर दूँगा। नीच महिष! मेरे द्वारा तेरे वे सींग काट लिये जायँगे और तेरा वह सारा बल छीन लिया जायगा, जिसके कारण तू पूर्ण अभिमानी बन बैठा है। सींग से मारने में ही तू कुशल है, न कि मोर्चे पर हथियार चलाने में।'
व्यासजी कहते हैं- इस प्रकार इन्द्र के कहने पर वह दूत तुरंत वहाँ से चल दिया। वह मदाभिमानी महिषासुर के पास गया और प्रणाम करके उससे कहने लगा।
दूतने कहा- राजन्! देवराज इन्द्र पूर्ण स्वतन्त्र है। उसके पास देवताओं की विशाल सेना है। अपने को वह महान् बलवान् समझता है। आपको तो वह कुछ भी नहीं गिनता। उस मूर्ख की कही हुई बातें मैं किस प्रकार बदलकर आपसे कहूँ; क्योंकि सेवक का कर्तव्य होता कि वह स्वामी के सामने प्रिय सत्य कहे। महाराज! कल्याणकामी दूत को चाहिये कि स्वामी के मुख पर सत्य और प्रिय बोले। परंतु मैं यदि केवल प्रिय ही बोलता हूँ तो वह असत्य होने से आपका कार्य सिद्ध होने में बाधा पड़ेगी और कल्याण कामी दूत को कभी कठोर वचन नहीं कहना चाहिये। अतः मैं वैसी बात कह नहीं सकता। प्रभो! ठीक ही है, शत्रु के मुख से तो विषतुल्य वचन निकलते ही हैं; पर वैसी बातें सेवक के मुख से कैसे निकल सकती हैं? राजन्! इस समय इन्द्र ने जिस प्रकार के घृणित वचन कहे हैं, वैसे वचन मेरी जीभ से कभी नहीं निकल सकते।
अध्याय 3 ( भाग 2 )
॥श्रीभगवत्यै नमः ॥
महिषासुर का देवताओं पर आक्रमण करने के लिये दैत्यों को प्रोत्साहन देना...
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व्यासजी कहते हैं- दूतकी बात में रहस्य छिपा हुआ था। उसे सुनकर महिषासुर का सर्वांग अत्यन्त क्रोध से तमतमा उठा। उसकी आँखें लाल हो गयीं। वह दैत्यों को बुलाकर उनसे कहने लगा – 'महाभाग दैत्यो! वह देवराज युद्ध करना चाहता है। तुमलोग भली-भाँति बल प्रयोग करके उस नीच शत्रु को परास्त कर दो। मेरे सामने दूसरा कौन शूरवीर कहला सकता है ? इन्द्र-जैसे करोड़ों वीर हों, तब भी कोई परवा नहीं, फिर इस अकेले इन्द्र से मुझे क्या डर है ? आज मैं उसे किसी प्रकार भी जीवित नहीं छोड़गा। जो शान्त रहते हैं, उन्हीं के प्रति वह शूरवीर कहलाता है। क्षीणकाय तपस्वी लोग ही उसे अधिक बलवान् मानते हैं। अप्सराएँ उसकी सहायिका हैं। उन्हीं का बल पाकर वह नीच सदा तपस्या में विघ्न उपस्थित करता रहता है। अवसर पाकर प्रहार कर देना उसका स्वभाव बन गया है। वह बड़ा ही विश्वासघाती है। यह वही छली इन्द्र है, जिसने नमुचि को मार डाला था। पहले तो नमुचि के साथ विवाद छिड़ जाने पर भयभीत होकर संधि करने में राजी हो गया। उसने तरह-तरह की प्रतिज्ञाएँ कर लीं। बाद में कपट करके उसे मार डाला। जालसाज विष्णु तो कपट-शास्त्र का पारंगत विद्वान् ही है। जब इच्छा होती है, नाना प्रकार के रूप धारण कर लेता है। बल भी है और दम्भ करने की सारी कलाएँ भी उसे ज्ञात हैं। दानवो! जिसने सूअर का रूप धारण करके हिरण्याक्ष को तथा नृसिंह का वेष बनाकर हिरण्यकशिपु को मार डाला, उस विष्णु की भी मैं अधीनता नहीं स्वीकार कर सकता। मुझे तो विश्वास ही नहीं होता कि देवताओं में भी कहीं कोई है, जो मेरे सामने ठहर सके। विष्णु अथवा महान् बलशाली इन्द्र मेरा क्या कर सकेंगे ? मैं समरांगण में खड़ा हो जाऊँगा तब शंकर भी मेरा सामना करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे। इन्द्र को हराकर स्वर्ग छीन लूँगा। वरुण, यमराज, कुबेर, अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य सभी मुझसे परास्त हो जायँगे। अब हम सब दानव ही यज्ञ में भाग पायेंगे। हमें सोम-रस पीने का अधिकार प्राप्त हो जायगा। देवताओं के समाज को कुचलकर मैं दानवों के साथ सुखपूर्वक विचरूँगा । दानवो! मुझे वर मिल चुका है। अतएव देवताओं से मैं बिलकुल नहीं डरता । पुरुषमात्र मुझे मारने में असमर्थ हैं, फिर स्त्री बेचारी क्या कर सकेगी ? शीघ्रगामी दूतो ! तुम्हारा परम कर्तव्य है, पाताल एवं पर्वत आदि विभिन्न स्थानों से प्रधान-प्रधान दानवों को बुला लाओ और उन्हें मेरी सेना के अध्यक्ष बना दो। दानवो! सम्पूर्ण देवताओं को जीतने के लिये अकेला मैं ही पर्याप्त हूँ; फिर भी मेरा गौरव बढ़ जाय - एतदर्थ इस देवासुर संग्राम में निमन्त्रण देकर आप सब लोगों को सम्मिलित करता हूँ। निश्चय ही मैं सींगों और खुरों से देवताओं के प्राण हर लूँगा। वरदान के प्रभाव से मुझे देवताओं का रत्तीभर भी भय नहीं है । देवताओं, दानवों और मानवों से अवध्य होने का वर मुझे प्राप्त है। अतएव आज आपलोग स्वर्गलोक पर विजय प्राप्त करने के लिये तैयार हो जायँ। दैत्यो! स्वर्ग पर अधिकार प्राप्त करके मैं नन्दनवन में विहार करूँगा। मेरे इस उद्योग से तुम्हें भी पारिजात के फूल सूँघने को मिलेंगे। देवांगनाएँ तुम्हारी सेवा करेंगी। कामधेनु गौ का दूध पीने को मिलेगा। अमृत पीकर तुमलोग आनन्द का अनुभव करोगे । दिव्य गन्धर्व नाच और गाकर तुम्हारे चित्त को आह्लादित करेंगे । उर्वशी, मेनका, रम्भा, घृताची, तिलोत्तमा, प्रमद्वरा, महासेना, मिश्रकेशी, मदोत्कटा और विप्रचित्ति प्रभृति अप्सराएँ नाचने एवं गाने में परम प्रवीण हैं। वे अनेक प्रकार की मदिराओं का सेवन करके तुम सब लोगों के चित्त को अत्यन्त प्रसन्न करेंगी; अतः देवताओं के साथ संग्राम करने के लिये स्वर्गलोक में चलना सबको सम्मत हो तो आज ही सभी तैयार हो जायँ। पहले मांगलिक कृत्य कर लेने चाहिये। सबकी सुरक्षा के लिये अपने परम गुरु मुनिवर शुक्राचार्यजी को बुलाकर भलीभाँति उनका स्वागत करें और उन्हें यज्ञ में नियुक्त कर दें।
व्यासजी कहते हैं–राजन्! महिषासुर की बुद्धि सदा पापकर्म में रत रहती थी। दैत्यों को उपर्युक्त आदेश देकर वह तुरंत अपने महल में चला गया। उस समय उसके मुखपर प्रसन्नता के चिह्न झलक रहे थे।
क्रमश...
शेष अगले अंक में
जय माता जी की
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