श्री काली चालीसा। श्री काली चालीसा______________॥ दोहा ॥जयकाली कलिमलहरण, महिमा अगम अपार ।महिष मर्दिनी कालिका , देहु अभय अपार ॥॥ चौपाई ॥रि मद मान मिटावन हारी । मुण्डमाल गल सोहत प्यारी ॥अष्टभुजी सुखदायक माता । दुष्टदलन जग में विख्याता ॥भाल विशाल मुकुट छवि छाजै । कर में शीश शत्रु का साजै ॥दूजे हाथ लिए मधु प्याला । हाथ तीसरे सोहत भाला ॥चौथे खप्पर खड्ग कर पांचे । छठे त्रिशूल शत्रु बल जांचे ॥सप्तम करदमकत असि प्यारी । शोभा अद्भुत मात तुम्हारी ॥अष्टम कर भक्तन वर दाता । जग मनहरण रूप ये माता ॥भक्तन में अनुरक्त भवानी । निशदिन रटें ॠषी-मुनि ज्ञानी ॥महशक्ति अति प्रबल पुनीता । तू ही काली तू ही सीता ॥पतित तारिणी हे जग पालक । कल्याणी पापी कुल घालक ॥शेष सुरेश न पावत पारा । गौरी रूप धर्यो इक बारा ॥तुम समान दाता नहिं दूजा । विधिवत करें भक्तजन पूजा ॥रूप भयंकर जब तुम धारा । दुष्टदलन कीन्हेहु संहारा ॥नाम अनेकन मात तुम्हारे । भक्तजनों के संकट टारे ॥कलि के कष्ट कलेशन हरनी । भव भय मोचन मंगल करनी ॥महिमा अगम वेद यश गावैं । नारद शारद पार न पावैं ॥भू पर भार बढ्यौ जब भारी । तब तब तुम प्रकटीं महतारी ॥आदि अनादि अभय वरदाता । विश्वविदित भव संकट त्राता ॥कुसमय नाम तुम्हारौ लीन्हा । उसको सदा अभय वर दीन्हा ॥ध्यान धरें श्रुति शेष सुरेशा । काल रूप लखि तुमरो भेषा ॥कलुआ भैंरों संग तुम्हारे । अरि हित रूप भयानक धारे ॥सेवक लांगुर रहत अगारी । चौसठ जोगन आज्ञाकारी ॥त्रेता में रघुवर हित आई । दशकंधर की सैन नसाई ॥खेला रण का खेल निराला । भरा मांस-मज्जा से प्याला ॥रौद्र रूप लखि दानव भागे । कियौ गवन भवन निज त्यागे ॥तब ऐसौ तामस चढ़ आयो । स्वजन विजन को भेद भुलायो ॥ये बालक लखि शंकर आए । राह रोक चरनन में धाए ॥तब मुख जीभ निकर जो आई । यही रूप प्रचलित है माई ॥बाढ्यो महिषासुर मद भारी । पीड़ित किए सकल नर-नारी ॥करूण पुकार सुनी भक्तन की । पीर मिटावन हित जन-जन की ॥तब प्रगटी निज सैन समेता । नाम पड़ा मां महिष विजेता ॥शुंभ निशुंभ हने छन माहीं । तुम सम जग दूसर कोउ नाहीं ॥मान मथनहारी खल दल के । सदा सहायक भक्त विकल के ॥दीन विहीन करैं नित सेवा । पावैं मनवांछित फल मेवा ॥संकट में जो सुमिरन करहीं । उनके कष्ट मातु तुम हरहीं ॥प्रेम सहित जो कीरति गावैं । भव बन्धन सों मुक्ती पावैं ॥काली चालीसा जो पढ़हीं । स्वर्गलोक बिनु बंधन चढ़हीं ॥दया दृष्टि हेरौ जगदम्बा । केहि कारण मां कियौ विलम्बा ॥करहु मातु भक्तन रखवाली । जयति जयति काली कंकाली ॥सेवक दीन अनाथ अनारी । भक्तिभाव युति शरण तुम्हारी ॥By वनिता कासनियां पंजाब॥ दोहा ॥प्रेम सहित जो करे, काली चालीसा पाठ ।तिनकी पूरन कामना, होय सकल जग ठाठ ॥
श्री काली चालीसा
______________
॥ दोहा ॥
जयकाली कलिमलहरण, महिमा अगम अपार ।
महिष मर्दिनी कालिका , देहु अभय अपार ॥
॥ चौपाई ॥
रि मद मान मिटावन हारी । मुण्डमाल गल सोहत प्यारी ॥
अष्टभुजी सुखदायक माता । दुष्टदलन जग में विख्याता ॥
भाल विशाल मुकुट छवि छाजै । कर में शीश शत्रु का साजै ॥
दूजे हाथ लिए मधु प्याला । हाथ तीसरे सोहत भाला ॥
चौथे खप्पर खड्ग कर पांचे । छठे त्रिशूल शत्रु बल जांचे ॥
सप्तम करदमकत असि प्यारी । शोभा अद्भुत मात तुम्हारी ॥
अष्टम कर भक्तन वर दाता । जग मनहरण रूप ये माता ॥
भक्तन में अनुरक्त भवानी । निशदिन रटें ॠषी-मुनि ज्ञानी ॥
महशक्ति अति प्रबल पुनीता । तू ही काली तू ही सीता ॥
पतित तारिणी हे जग पालक । कल्याणी पापी कुल घालक ॥
शेष सुरेश न पावत पारा । गौरी रूप धर्यो इक बारा ॥
तुम समान दाता नहिं दूजा । विधिवत करें भक्तजन पूजा ॥
रूप भयंकर जब तुम धारा । दुष्टदलन कीन्हेहु संहारा ॥
नाम अनेकन मात तुम्हारे । भक्तजनों के संकट टारे ॥
कलि के कष्ट कलेशन हरनी । भव भय मोचन मंगल करनी ॥
महिमा अगम वेद यश गावैं । नारद शारद पार न पावैं ॥
भू पर भार बढ्यौ जब भारी । तब तब तुम प्रकटीं महतारी ॥
आदि अनादि अभय वरदाता । विश्वविदित भव संकट त्राता ॥
कुसमय नाम तुम्हारौ लीन्हा । उसको सदा अभय वर दीन्हा ॥
ध्यान धरें श्रुति शेष सुरेशा । काल रूप लखि तुमरो भेषा ॥
कलुआ भैंरों संग तुम्हारे । अरि हित रूप भयानक धारे ॥
सेवक लांगुर रहत अगारी । चौसठ जोगन आज्ञाकारी ॥
त्रेता में रघुवर हित आई । दशकंधर की सैन नसाई ॥
खेला रण का खेल निराला । भरा मांस-मज्जा से प्याला ॥
रौद्र रूप लखि दानव भागे । कियौ गवन भवन निज त्यागे ॥
तब ऐसौ तामस चढ़ आयो । स्वजन विजन को भेद भुलायो ॥
ये बालक लखि शंकर आए । राह रोक चरनन में धाए ॥
तब मुख जीभ निकर जो आई । यही रूप प्रचलित है माई ॥
बाढ्यो महिषासुर मद भारी । पीड़ित किए सकल नर-नारी ॥
करूण पुकार सुनी भक्तन की । पीर मिटावन हित जन-जन की ॥
तब प्रगटी निज सैन समेता । नाम पड़ा मां महिष विजेता ॥
शुंभ निशुंभ हने छन माहीं । तुम सम जग दूसर कोउ नाहीं ॥
मान मथनहारी खल दल के । सदा सहायक भक्त विकल के ॥
दीन विहीन करैं नित सेवा । पावैं मनवांछित फल मेवा ॥
संकट में जो सुमिरन करहीं । उनके कष्ट मातु तुम हरहीं ॥
प्रेम सहित जो कीरति गावैं । भव बन्धन सों मुक्ती पावैं ॥
काली चालीसा जो पढ़हीं । स्वर्गलोक बिनु बंधन चढ़हीं ॥
दया दृष्टि हेरौ जगदम्बा । केहि कारण मां कियौ विलम्बा ॥
करहु मातु भक्तन रखवाली । जयति जयति काली कंकाली ॥
सेवक दीन अनाथ अनारी । भक्तिभाव युति शरण तुम्हारी ॥
By वनिता कासनियां पंजाब॥ दोहा ॥
प्रेम सहित जो करे, काली चालीसा पाठ ।
तिनकी पूरन कामना, होय सकल जग ठाठ ॥
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